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सोमवार, 29 अगस्त 2011

भारी-लघु कथा

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जोरदार तूफ़ान शुरू हो चुका था .साठ वर्षीय सूरज सिंह तेजी से घर की ओर ही आ रहा था.धूल उड़ने के कारण आँख भी ठीक से नहीं खुल पा रही थी .घर कुछ ही दूर रह गया था.तूफ़ान इतना तेज था कि पीछे को धक्का दे रहा था.सूरज सिंह को घर का द्वार धुंधला सा नज़र आया और उसके बाहर आंधी से जूझता  हुआ नीम का पेड़ .सूरज सिंह अभी पेड़ के करीब पहुंचा ही था कि सालों पुराना पेड़ भड़भड़ाता   हुआ उस पर ही गिर पड़ा .सूरज सिंह की आवाज गले में ही अटक गयी .बड़ी मुश्किल से दबे दबे ही वह केवल इतना पूछ पाया -''अहसानफरामोश पेड़ तुझे पिछले कितने ही सालों से सुबह शाम पानी से सींचता रहा और तूने  मुझे  ही दबा डाला .''उसे लगा जैसे पेड़ भी जवाब दे रहा है -''मूर्ख ! अहसानफरामोश मैं नहीं तू है .याद कर तूने कैसे बेइज्जत कर अपने पिता को घर से निकाल  दिया था ?उन्होंने भी तो तुझे बचपन से लेकर जवानी तक खूब लाड़- प्यार और  अपने खून की गाड़ी कमाई से सींचा था पर तूने अंतिम दिनों में उन्हें घर से निकाल दिया .तेरे कारण  सड़कों पर भटक-भटक कर मरना उन्हें जितना भारी पड़ा था उससे ज्यादा भारी नहीं हूँ मैं दुष्ट !'' तूफ़ान थमने पर लोगों ने जब सूरज सिंह को पेड़ के नीचे से निकाला  तब तक उसके प्राण -पखेरू उड़ चुके थे .

                                             शिखा कौशिक 

4 टिप्‍पणियां:

अभिषेक मिश्र ने कहा…

यथार्थपरक रचना.

Manoranjan Manu Shrivastav ने कहा…

रिश्तों का बोझ , आज के इस आधुनिकतावादी समाज इतना भारी होता जा रहा है की लोग अपनी जड़ों को भी काटने में जरा भी नहीं हिचकिचाते हैं .
बहुत अच्छी कहानी .
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मुस्कुराना तेरा
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अन्ना जी के तीन....

दिगम्बर नासवा ने कहा…

लघु कथा के माध्यम से सार्थक बात कही है ... गहरा सन्देश छिपा है इस लघु कहानी में ...

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत बढिया शिखा