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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2017

सूजी हुई आँखें-कहानी

''...बहू अगर चाहती है तो बेशक तुम अलग घर ले लो ..लेकिन याद रखना एक दिन तुम्हें मेरे पास वापस आना ही होगा .'' माँ ने गंभीर स्वर में अपना निर्णय सुना दिया . सच कहूँ तो मेरी माँ से दूर जाकर रहने की रत्ती भर भी इच्छा नहीं थी लेकिन अनुभा के जिद करने के कारण  मैंने यही निर्णय लिया कि '' अलग ही रहा जाये ...कम से कम ऑफिस से जब शाम को थका हुआ घर वापस आऊंगा तब अनुभा की सूजी हुई आँखें तो नहीं होगी .अभी दो साल ही तो हुए थे हमारे विवाह को .माँ न जाने क्या-क्या कहती है अनुभा को दिनभर में कि मेरे पीछे वो रोती ही रहती है .यद्यपि अनुभा ने माँ कही गयी कोई बात मुझे आज तक नहीं बताई लेकिन हमेशा यही कहती ..अगर अलग घर ले लो तो मैं भी कुछ दिन और जी लूंगी .'' ये सब सुनकर मैं दिल ही दिल में डर जाता कि कहीं तनाव न झेल पाने के कारण अनुभा गलत कदम न उठा ले .माँ के आज्ञा देने के बाद शहर में ही एक फ्लैट ले लिया और मैं माँ को पुश्तैनी घर में अकेला छोड़ अनुभा के साथ उस फ्लैट में शिफ्ट कर गया .ये एक इत्तफाक ही था कि उस फ्लैट में सैटल होने के तीन दिन बाद ही हमें पता चला कि मैं पिता व् अनुभा माँ बनने वाली है .मैं चाहता था कि माँ को बता आऊं लेकिन कदम रूक  गए ...न जाने क्यों ऐसा लगा कि माँ को ख़ुशी नहीं होगी .हालाँकि मेरी और अनुभा की शादी माँ की मर्ज़ी से ही हुई थी लेकिन माँ दहेज़ में और भी बहुत कुछ चाहती थी जो उन्हें नहीं मिल पाया और इसका हिसाब उन्होंने अनुभा को तानें दे दे कर वसूलना चाहा .कभी कभी सोचता हूँ कि औरत की सबसे बड़ी दुश्मन औरत ही है क्या जो उसे बहू के रूप में तड़पाती है और यहाँ तक कि उसे जलाकर मारने में भी पुरुषों से पीछे नहीं रहती .पिता जी जीवित होते तो माँ की शिकायत उनसे कर सकता था पर वो तो मेरे विवाह से पूर्व ही स्वर्ग सिधार गए थे  .खैर छोडो अब मुझे अनुभा का विशेष ध्यान रखना होगा .
         कुछ दिन बीते ही थे कि एक दिन जब मैं ऑफिस से लौटकर आया तो अनुभा के मुंह से यह सुनकर कि '' कभी माँ से भी मिल आया कीजिये .'' मैं अचंभित रह गया .आखिर जिसके साथ रहने से अनुभा की ज़िंदगी कम होती थी आज उसी की चिंता हो आयी .मैंने  '' मिल आऊंगा '' का वादा किया और कॉफी बनाकर लाने का अनुभा से आग्रह किया .अनुभा की माँ से मिल आने की बात  पर आश्चर्य तो बहुत हुआ ,फिर ये सोचकर चुप हो गया कि मैं पुरुष स्त्रियों की मनोवृत्ति को क्या समझूँ !''दो दिन बाद रविवार को नाश्ते के समय अनुभा ने जब मुझसे ये कहा कि ''चलो आज माँ से मिल आये  .'' तब मैं उससे पूछे बिना न रह सका -'' एक बात बताओगी अन्नू जब उस घर में एक साथ रहते थे तब तो माँ का चेहरा तक नहीं देखना चाहती थी लेकिन ....पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ माँ से मिलने की बड़ी इच्छा हो रही है तुम्हारी !'' अनुभा कुछ गंभीर होती हुई बोली -'' जानते हो जब मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ तो मेरा मन करा कि सबसे पहले माँ को बताकर आये ...फिर मैंने भी यही सोचा कि जिसने मुझे इतने कष्ट दिए क्या उसके प्रति मैं विनम्र बन जाऊं ? ..लेकिन एक बात बताइये क्या इस ख़ुशी पर माँ का हक़ नहीं है ?'' अनुभा के इस जवाब ने मुझे लगभग चुप्पी साधने पर मजबूर कर दिया लेकिन मैं चाहता कि गर्भवती अनुभा को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंचे अतः मैंने अनुभा को इस बात के लिए राज़ी कर लिया कि मैं अकेला ही जाऊंगा और यदि माँ ने अनुभा से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की तब मैं अनुभा को भी किसी दिन माँ से मिलवा लाऊंगा .वादे के अनुसार मैं माँ से मिलने जब घर पहुंचा तो माँ मुझे गले लगाकर रो पड़ी और मैंने उसे ये खुशखबरी सुनाई कि वो दादी बनने वाली है तो फ़ौरन बोली -'' बहू को साथ ले आता तो कोई ज्यादा तेल खर्च हो जाता तेरी गाड़ी का ! ..अच्छा ऐसा कर ये रख सोने का कंगन ....मेरी ओर से बहू तो दे देना .'' मैं फिर विस्मय में पड़ गया कि जो माँ तरह-तरह के ताने देकर बहू को पल भर भी चैन की साँस न लेने देती थी वो आज कैसे उसकी शुभकांक्षिणी हो गयी ? मैंने कंगन अपनी पेंट की जेब में रखा और माँ से '' फिर आऊंगा'' कहकर घर से निकल लिया .अनुभा माँ का आशीर्वाद पाकर अत्यधिक प्रसन्न हुई .अब मुझे लग रहा थी कि मैंने ही बहुत स्नेह  करने वाली सास-बहू को एक दूसरे  से दूर कर रखा है अन्यथा इनका प्रेम तो अटूट है .
     ऐसे ही एक  दिन सुबह  से ही प्रोग्राम था मेरा व् अनुभा का माँ से मिलने जाने का .मैंने ऑफिस का काम जल्दी निपटाया और ठीक चार बजे घर पहुँच गया .दो बार डोर बैल बजायी पर अनुभा खोलेने ही नहीं आयी .मन में अनेक शंकाएं जन्म लेने लगी ...न जाने अनुभा क्यों इतनी देर कर रही है ! रोज़ तो डोर पर ही खड़ी हो जाती है मेरे इंतज़ार  में पर डोर खुलते ही मैं हक्का-बक्का रह गया क्योंकि द्वार अनुभा ने नहीं माँ ने खोला .'' माँ तुम यहाँ ?'' मेरे मुंह से अनायास ही ये निकल गया .माँ ने प्रश्न के उत्तर में एक और ही प्रश्न कर डाला -'' क्यों मैं नहीं आ सकती यहाँ ?' मैं क्या जवाब देता , मैंने झुककर माँ के चरण-स्पर्श किये और कपडे बदलने अंदर बैडरूम में चला गया . कपडे बदलकर लौटा तो माँ और अनुभा को एक साथ बैठकर बातें करते देखकर मुस्कुरा दिया .माँ अनुभा को अनेक सलाहें दे रही थी और अनुभा एक आज्ञाकारी बहू के रूप में सहमति में सिर हिलाये जा रही थी .माँ जब चलने को हुई तो मुझसे ज्यादा अनुभा ने आग्रह किया माँ से रुकने का .माँ ने पुनः आने का आश्वासन दिया .अनुभा माँ को मेरे साथ बाहर तक छोड़ने गयी .माँ को विदा कर जब मैं और अनुभा वापस ड्रांइग रूम में आये तो अनुभा मुझसे बोली -'' सुनिए क्यों न हम वापस घर चले ? मैं ये सुनकर काफी भड़क गया -'' अब वापस चले !!!अन्नू ये सब क्या है ? कभी माँ तुम्हारी शत्रु थी और अब तुम फिर वही जाना चाहती हो !!!.'' अनुभा मुझे ऐसे क्रोध में देखकर सहम सी गयी और धीमे स्वर में बोली -'' नाराज़ क्यों होते हो ...यदि माँ आज आकर मुझसे विनती न करती तो क्या मैं ऐसी बात करती ? आप नहीं जानते माँ कितनी परेशानी में रहती हैं ! आप क्या जाने एक औरत के ह्रदय की अवस्था को ...पति तो स्वर्ग सिधार गए और बेटा दूर जाकर ..'' अनुभा ये कहकर अंदर चली गयी और मुझे इस अपराधबोध में  डाल गयी कि मैं कितनी नालायक एकलौती संतान  हूँ जो अपनी माँ का ध्यान नहीं रखता !'' खैर मैंने निश्चय किया वापस लौटने का .
          माँ के पास लौटकर आये अब आठ माह हो चुके थे .अनुभा ने अक्टूबर माह की बारह तारीख को एक फूल सी बिटिया को जन्म दिया . मैं हर्ष से खिल  उठा और माँ ये सुनकर कि '' पोती हुई है '' मुरझा गयी .
    अब पुनः वही सिलसिला शुरू हो गया है कि जब मैं ऑफिस से लौटता हूँ तो अनुभा की आँखें वैसे ही सूजी हुई मिलती हैं .

शिखा कौशिक 'नूतन' 

रविवार, 9 अप्रैल 2017

बुलंद आवाज़ -कहानी

ये हत्या एक नेता की नहीं थी ; ये हत्या थी सौहार्द व् उदारतावाद के मूर्तिमान व्यक्तित्व की , जो परम्परागत सफ़ेद धोती पहने ;नंगे सीने ....घुस जाता था उस जुनूनी भीड़ में जो कभी हिन्दू-मुस्लिम के नाम पर तो कभी ब्राह्मण-शूद्र के नाम पर मरने-कटने को तैयार हो जाती थी .उसने कभी भगवा पट्टा गले में न डाला पर उसके कहने पर हज़ारों गौमांस खाने वालों ने गौमांस खाना बंद कर दिया क्योंकि उसने उनके दिलों में पैदा की थी गाय के प्रति वही आदर-स्नेह की भावना ; जो एक हिन्दू परिवार में ' गाय' हमारी माता है ' कहकर बच्चे-बच्चे में संस्कार रूप से भरी जाती है . वो कट्टर हिंदूवादियों को भी ललकारते हुए कहता -'' श्री राम के ठेकेदार मत बनो ...बनना है तो श्री राम के भक्त बनो .' वो अक्सर कहता -'' मंदिर तो आज बन जाये अगर इस मुद्दे पर सियासत न हो .'' उसके शब्द जनता पर जादू सा असर करते .जनता दीवानी सी  होकर उसे घेरे रहती .
          माँ-बाप शिकायत करते कि ' बेटियों -बहुओं का तो घर से निकलना ही मुश्किल हो गया है .'' तब वो फुंकारता हुआ कहता '' बेटों को रोका है शरारतें करने से .....बेटों को सुधारो ...बेटी-बहुएं खुद सुरक्षित हो जाएँगी .''
          जब  मुसलमान औरतें छाती पीटती आती पति द्वारा अकारण तलाक देने पर तब वो भड़ककर कहता -'' रोने से क्या होगा ? एकजुट होकर लड़ो ....धार्मिक ग्रंथों में जिस समय जो लिखा गया था वो उस समय की परिस्थिति  के अनुसार सटीक रहा होगा .....सदियाँ गुज़र गयी है.........कुछ तो बदलो ....''
       उसके खिलाफ फतवे जारी हो गए और कट्टरपंथी हिन्दू उसे मुल्ला कहने लगे .पत्रकार कहते -'सुरक्षा ले लीजिये '' तो वो हँसता  हुआ कहता -'' मालूम है ना इंदिरा जी को उनके सुरक्षा कर्मियों  ने ही भून डाला था ....चलो एक बात को लेकर तो मैं निश्चिन्त हूँ कि मेरे मरने पर दंगें न होंगें क्योंकि सियासत करने वाले दोनों हाथ मेरे खिलाफ हैं .''
        उसके बेख़ौफ़पन  से सियासत के बाजार में मंदी का माहौल हो गया .सियासी दुकानों के शटर धड़ाधड़ गिरने लगे .सियासी रोटी खाने वालो के बुरे दिन आ गए .दंगों के लिए तैयार माल गोदामों में सड़ने लगा .सियासतदारों ने अपने चमचों से उस पर जूते फिकवाए .उसने जूता हाथ में लेकर जनता से पूछा- ' बताओ ये जूता हिन्दू का है या मुसलमान का ?'' जनता ठहाका लगाने लगी .उसके घर पर पत्थरबाज़ी करवाई  गयी , वो मुस्कुराते हुए बोला -'' चलो पत्थर दिलों से निकले इतने पत्थर , अब उनके दिल का बोझ कुछ तो कम होगा .'' उसके चरित्र पर भी हमला किया गया पर हर स्त्री में माता का रूप देखने वाले उस स्फटिक जीवनधारी को कौन लांछित कर सकता था !
           वो हर हमले के बाद मज़बूत होता गया .जनता के दिल में उसके लिए जगह बढ़ती गयी .उसकी आवाज़ और बुलंद होती गयी .अब सियासतदारों  के पास अंतिम उपाय यही रह गया था कि ''इस आवाज़ को हमेशा हमेशा के लिए खामोश  कर दिया जाये !'' उन्होंने उसके नंगे सीने को गोलियों से छलनी कर डाला .कमर पर बंधी सफ़ेद धोती भी खून से सन गयी .उसके आखिरी शब्द थे-'' ये गोलियां न हिन्दू की हैं ..न मुसलमान की ...ये सियासत की गोलियां हैं ...इनसे बचकर रहना देशवासियों .'' उसकी शवयात्रा में हिन्दू-मुसलमान सभी थे और उनके कानों में गूँज रही थी ...उसकी ही बुलंद आवाज़ .सियासत करने वाले क्या जाने ये आवाज़ें तो सदियों तक ऐसे ही गूंजती रहेंगी ..इन्हें जूतों , पत्थरों और गोलियों से कभी खामोश नहीं किया जा सकता है ........आमीन !   ...तथास्तु !

शिखा कौशिक 'नूतन'