शिखा कौशिक 'नूतन'
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बुधवार, 25 दिसंबर 2013
व्यास-गद्दी -लघु कथा
शिखा कौशिक 'नूतन'
सोमवार, 23 दिसंबर 2013
पुरुषीय -नैतिकता :कहानी
जेल में भी साथी कैदी उससे बात करने में कतराते और उसके साथ बैठते उन्हें घिन्न आती .साफ्टवेयर इंजीनियर विलास आज कैदी बनकर जेल में घुटने मोड़कर उनके बीच में अपना सिर दिए बैठा रहता .न उसके घर से उसके माता-पिता मिलने आये और न ही प्रियंका के घर से कोई उससे मिलने आया .
आज कचहरी में जज साहब के सामने विलास को अपना पक्ष रखना था .पुलिस सुरक्षा में कचहरी में पहुँचते ही ''इस वहशी को फांसी दो !!!'' के नारे गूंजने लगे .हजारों की संख्या में जमा भीड़ के हाथों से विलास को ज़िंदा बचाकर कोर्ट-रूम तक ले जाना पुलिस के लिए उतना ही मुश्किल काम था जितना मधुमक्खियों के उड़ते माल से बचकर निकलना पर पुलिस वालों ने आज पसीना बहाते हुए कर्तव्य पालन की मिसाल खड़ी कर दी . जनता के हाथ मात्र विलास की कमीज़ के कॉलर का जरा सा टुकड़ा ही लग पाया जो एक बहादुर जनसेवक ने पुलिस के डंडे खाकर भी आगे बढ़कर खींच लिया था .
कोर्ट-रूम में जज साहब के द्वारा यह पूछे जाने पर कि ''तुम अपनी सफाई में क्या कहना चाहोगे ?'' पर विलास ने धीरे से उत्तर देना शुरू किया -'' सर ! मैं निर्दोष हूँ ..मुझे ये सब करने के लिए प्रियंका ने ही उकसाया .वो प्रेमिका से कभी पत्नी बन ही नहीं पायी .जब तक हमने प्रेम-विवाह नहीं किया था तब तक उसका अपने घर वालों से छिप छिप मोबाइल पर मुझसे बात करना मुझे बहुत अच्छा लगता था पर विवाह के बाद भी वो किसी से छिप छिप कर फोन पर बात करती .मैं पूछता तो कहती ...मम्मी का फोन है ...फिर मैं कहता मेरी बात कराओ तो गुस्सा हो जाती ..कहती मुझ पर शक करते हो ..जाओ नहीं कराती बात ..यूँ टाल जाती . मुझसे रोज़ नए-नए गिफ्ट एक्सपैक्ट करती ..मैं न लाता तो न खाना बनाती और न पानी को पूछती .विवाह के दो माह के अंदर उसने मेरे जमा बैंक-बैलेंस का आधा रुपया कपड़ों , जेवरों में फूंक डाला .मैंने टोका तो खुद पर मिटटी का तेल छिड़ककर माचिस लेकर खड़ी हो गयी .
मैंने तो ये सोचकर उससे विवाह किया था कि पढ़ी लिखी ब्रॉड माइंडेड लड़की है ..हमारी अच्छी छनेगी पर उसने तो मुझे मेरे ही घर में घोट डाला .मेरे माता-पिता ने मेरी इच्छा को सम्मान देते हुए मेरे प्रेम विवाह को मान्यता दे दी .वे घर आने वाले थे .मैंने प्रियंका से कहा -'' आज साड़ी पहन लेना ..माँ को पसंद है'' .. पर वो माँ-पिताजी के सामने क्वार्टर पैंट-टॉप में आकर खड़ी हो गयी .माँ-पिता जी के जाने के बाद मैंने गुस्से में उसके तमाचा जड़ दिया तो अलमारी से साड़ी निकल कर बैड पर चढ़ गयी और सीलिंग फैन से लटकने की धमकी देने लगी और कहने लगी -''तुमने मुझे इसी पहनावे में पसंद किया था और आज इसी के कारण मेरे तमाचा जड़ दिया ..तुम ऐसा नहीं कर सकते !!!''
विवाह के छठे महीने हमें खुशखबरी मिली कि हमारे घर नन्हा मेहमान आने वाला है पर प्रियंका ने मुझसे पूछे बिना ..जब मैं कम्पनी के काम से बाहर गया हुआ था बच्चा गिरा दिया .कारण पूछने पर बोली -अभी मैं केवल तेईस साल की हूँ ..अभी से माँ बनने का नाटक मुझसे नहीं होगा और हां जब मैं अपने माता -पिता से बिना पूछे तुमसे शादी कर सकती हूँ तब हर काम मैं तुमसे पूछ पूछ कर करूंगी इसकी उम्मीद तुम मुझसे मत रखना .''
प्रियंका की ये हरकतें कब मुझे इंसान से हैवान बनाती गई मैं खुद भी न जान पाया .मुझसे मिलने आये दोस्ते से उसका घुल-मिल कर बातें करना मुझे अंदर तक जला डालता .मैं उसे टोकता तो कहती -''अगर मैं मर्दों से बात करने में शर्माती तो क्या तुमसे बात कर पाती ..अब मेरा आज़ाद ख्यालात होना खटक रहा है पर विवाह से पहले तुम्ही कहते थे ना कि सिमटी-सकुची गंवार लड़कियां तुम्हे पसंद नहीं ...जो ठीक से बात भी नहीं कर पाती .''
प्रियंका के इस व्यवहार ने मुझे डरा डाला था .विवाह से पहले बात और थी पर अब वो मेरी पत्नी थी ..प्रेमिका की बातें दोस्तों में कर मैं भी मजे लेता था पर पत्नी ...पत्नी दोस्तों के साथ बैठ कर मजे ले ये मुझे क्या किसी भी मर्द को बर्दाश्त नहीं हो सकता !प्रेमिका आज़ाद ख़यालात रख सकती है पर पत्नी नहीं ....प्रेमिका के लिए रूपये हवा में उड़ाये जा सकते हैं पर पत्नी के लिए नहीं .पत्नी देवी होती है और जब वो अपने देवी -स्वरुप की गरिमा का ध्यान नहीं रखती तब उसके ऐसे ही टुकड़े किये जाते है जैसे मैंने किये ...आखिर नैतिकता भी कोई चीज़ है .'' ये कहकर विलास चुप हो गया .जज साहब निर्णय सुरक्षित रख कोर्ट रूम से चले गए तब पुलिस विलास को कोर्ट रूम से वापस अपनी जीप की ओर ले चली .कचहरी परिसर में अब केवल कुछ महिला संगठन की सदस्याएं -''फांसी दो ..फांसी दो !'' का नारा बुलंद कर रही थी .सभी आंदोलनकारी पुरुष अब नदारद थे .
शिखा कौशिक 'नूतन'
गुरुवार, 19 दिसंबर 2013
सरम भी तो आवै है -लघु कथा
शिखा कौशिक 'नूतन'
रविवार, 15 दिसंबर 2013
तेरहवीं -कहानी
''मृत्यु , दाह-संस्कार और तेरहवीं .....इसके बाद बस स्मृति-पटल पर दिवंगत व्यक्ति की छवि ,उसका मुस्कुराना ,रूठना , मनाना , हिदायतें और शेष इच्छाओं की अपूर्णता को लेकर कसक ...बस यही तो है इस जीवन का सच .'' विचारों के ऐसे ही तूफानी उथल -पुथल से जूझ रही थी पुष्पा अपने सामने घर पर ताला लगवाते समय . आज उसका दिल ही नहीं बल्कि उसकी आत्मा भी चीत्कार कर रही थी .
तेरह दिन पहले तक ज़िंदगी धीमी ही सही सुकूनी रफ़्तार से चल रही थी .पुष्पा और उसके पतिदेव अपने इस आशियाने में लम्बा वैवाहिक सफ़र पूरा कर इतमीनान से रह रहे थे .एकलौता बेटा व् बहू दूर शहर में अपना आशियाना बसाये हुए थे ....पर तेरह दिन पहले की वह कातिल सुबह पुष्पा के पतिदेव को ह्रदय -गति रुक जाने के कारण अंतिम -यात्रा पर ले गयी और पुष्पा के दिल में बस एक सदमा कि ''अब तो जाना ही होगा '' दे गयी . किसी गैर के घर नहीं बल्कि अपने एकलौते बेटे के घर जाना भी पुष्पा के लिए दुखदायी ही था .पतिदेव के जीवित रहते कई बार कहा था पुष्पा ने बेटे के घर चलकर रहने के लिए पर रिटायर्ड बैंक अधिकारी पतिदेव ने हर बार ठुकरा दिया था ये कहकर -'' तुम जाना चाहती हो तो जाओ मैं अकेला रह लूँगा !'' पुष्पा जानती थी कि पतिदेव का यहीं अपने घर पर रहना स्वाभिमानी होने के साथ-साथ इस घर से जुड़ा मोह भी है .अपने ही बेटे के घर मेहमान बनकर जाने पर जो इज्ज़त बख्शी जाती है वो स्थायी रूप से निवास करने पर ज़िल्लत का रूप ले लेती है फिर अपनी इच्छानुसार जागने ,उठने-बैठने ,खाने-पीने ,घूमने ,बुलाने-जाने की जो आज़ादी यहाँ है वो बेटे के घर कहाँ ! दो दिन भी काटने मुश्किल हो जाते थे उसके घर जब कभी जाकर रहे थे दोनों .बेटे-बहू का भी दोष नहीं उनकी अपनी जीवन -शैली है .यहाँ बरसों पुराने दोस्तों के साथ पुरानी यादों को ज़िंदा कर जीवन के इस अंतिम -पड़ाव का जो आनंद था वो बेटे के घर पर टी.वी. के सामने चिपके रहने में कहाँ !....पर आज ...आज तो पुष्पा को जाना ही पड़ेगा ! शरीर में इतना दम नहीं कि अकेले रह पाये और बेटा कब तक यहाँ रुक पायेगा ? ...पूरे तेरह दिन नौकरी ,बच्चों की पढाई ,अपना घर छोड़कर तन-मन से पिता की आत्मा की शांति के लिए लगा रहा है बेटा ...लेकिन अब एक और दिन रुक पाना सम्भव नहीं ! पोता-पोती धूम मचा रहे हैं ...पूरे तेरह दिन बाद वापस अपने घर जा रहे हैं.कितना होम-वर्क करना पड़ेगा -इसकी चिंता भी सता रही है उन्हें ....और पुष्पा है कि बार-बार आँगन में लगे पौधों के पास जाकर मन ही मन माफ़ी मांग रही है ...'माफ़ कर देना यदि किसी दिन पडोसी तुम्हे पानी देना भूल जाएँ ..कह दिया है उनसे पर तुम हो तो मेरे और उनके रोपे हुए .तुम ही साक्षी हो हम दोनों पति-पत्नी के आखिरी दिनों की मीठी नोंक-झोंक ,बड़बड़ाने और उखाड़ने के '' ......तभी नज़र पड़ी पुष्पा की कोने में पड़ी झाड़ू पर ...'' कौन बुहारने आएगा अब आँगन .......दिल करता है यहाँ की सुबह ,दोपहर , शाम और रात सब अपने थैले में भरकर ले जाऊं !''पुष्पा ये सोच ही रही थी कि बेटे ने कंधे पर हाथ रखते हुए कहा -'' चलो माँ ...कार में बैठो ...देर हो रही है ....अब यहाँ क्या जब पिता जी ही नहीं रहे !'' पुष्पा ने कातर दृष्टि से बेटे की ओर देखा . कान में फिर से गूंजा -''अब यहाँ क्या जब पिता जी ही नहीं रहे .'' पुष्पा के दिल में आया कहे ''सब कुछ तो है ....यहीं है मेरा सब कुछ '' पर बोल कुछ न पाई .कार में जाकर बैठने से पहले मुड़कर घर को प्रणाम किया -'' तेरी दीवारों ,छतों ,आँगन में मेरा जीवन बसंत सा बीता ...अब जा रही हूँ ...शायद फिर न आ पाऊं तुझे सजाने-संवारने ...मुझे याद रखना !'' ये सोचते सोचते कार में पिछली सीट पर बैठ गयी पुष्पा . कार स्टार्ट होते ही ज्यूँ ही चली पुष्पा को लगा मानों उसके पतिदेव घर के द्वार पर खड़े हैं और कह रहे हैं -'' जाओ पुष्पा ...तुम जाना चाहती हो तो जाओ ...मैं अकेला रह लूँगा !!'' पुष्पा आँखों से ओझल होने तक मुड़-मुड़ कर अपना आशियाना देखती रही और उसे महसूस हुआ मानों पतिदेव के साथ -साथ उसकी तेरहवीं भी आज हो गयी और वो आज अपनी आत्मा यहीं छोड़ अनंत मुक्ति-पथ पर चल पड़ी है .
[जनवाणी के रविवाणी में नौ फरवरी २०१४ अंक में प्रकाशित ]

शिखा कौशिक 'नूतन'
गुरुवार, 12 दिसंबर 2013
जातिवाद का ज़हर -लघु कथा
शिखा कौशिक 'नूतन
मंगलवार, 10 दिसंबर 2013
तमाचा-लघु कथा
शिखा कौशिक 'नूतन'
रविवार, 8 दिसंबर 2013
रामलीला-मंच -लघु कथा
शिखा कौशिक 'नूतन'
शनिवार, 7 दिसंबर 2013
आकर्षक कवयित्री -लघु कथा
शिखा कौशिक 'नूतन'
शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013
एक अच्छा सा फोटो -लघु कथा
अखबार के एडिटर महोदय का फोन आया .बोले -'' दीप्ति जी आपका आलेख सोमवार को प्रकाशित कर रहे हैं ..आप अपना अच्छा सा फोटो भेज दें .'' ये सुनते ही दीप्ति को झटका सा लगा .पहले भेजा तो था एक फोटो .अब जैसी वो है वैसा ही फोटो था .दीप्ति ने एडिटर महोदय को आश्वस्त करते हुए कि -'' वो भेजने का प्रयास करेगी '' बातचीत को सुखद विराम दे दिया पर इस बात ने उसके दिमाग में उथल -पुथल मचा दी .उसने सोचा -'' आखिर ये अच्छा सा फोटो क्यों जरूरी है ? क्या पाठक आलेख की सार्थकता के स्थान पर आलेख के साथ छपे लेखक के फोटो पर ज्यादा ध्यान देते हैं ? या ये बाध्यता केवल लेखिकाओं के साथ है कि उनकी रचना के साथ एक अच्छा सा फोटो भी हो ?क्या लेखिकाओं को अपनी लेखन-शैली को परिष्कृत करने ,अलंकृत करने ,शब्द ज्ञान को समृद्ध करने के स्थान पर अपना एक अच्छा सा फोटो अपनी रचना के साथ छपवाने से पाठकों में अधिक लोकप्रियता हासिल हो जायेगी ?'' तभी दीप्ति का ध्यान पास रखी साहित्यिक पत्रिका पर गया जिसमे महादेवी वर्मा जी का अत्यंत सीधा-सादा फोटो छपा हुआ था .दीप्ति उस फोटो को देखते हुए सोचने लगी -'' नहीं कभी नहीं ! एक लेखिका को केवल अपने लेखन पर ध्यान देना चाहिए और जिस पाठक की रुचि अच्छे फोटो में हो वे मॉडल्स के फोटो चाव से देख सकते हैं .लेखक व् लेखिका अपने लेखन से ही पहचाने जाये यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है !''
शिखा कौशिक 'नूतन
मंगलवार, 3 दिसंबर 2013
घटिया सोच-लघु कथा
शिखा कौशिक 'नूतन'
रविवार, 1 दिसंबर 2013
पुरुष हुए शर्मिंदा -लघु कथा
लिफ्ट में घुसते ही बाइस वर्षीय सारा ने देखा लिफ्ट में उसके अलावा केवल उसके पिता की उम्र के एक शख्स लिफ्ट में थे .लिफ्ट चलते ही सारा ने उस व्यक्ति से जितनी दूरी सम्भव थी ...बना ली . सारा के मन में आया -'' पहले जब लिफ्ट में इस उम्र के किसी पुरुष को देख लेती थी तब रिलैक्स हो जाती थी ...चलो घबराने की कोई बात नहीं पर तरुण तेजपाल ने अपनी बेटी की उम्र की लड़की के साथ जो किया उसके बाद से तो सच में किसी भी उम्र के पुरुष पर विश्वास नहीं किया जा सकता है .....!!'' सारा के सोचते सोचते ही लिफ्ट रुक गयी और गेट खुलते ही वो बाहर निकल ली .पीछे-पीछे वे सज्जन भी निकल लिए और उन्होंने सारा को टोककर रोकते हुए कहा -'' सुनो बेटी ! सब पुरुष तरुण तेजपाल जैसे नहीं होते .उसने जो किया उससे मैं भी शर्मिंदा हूँ !'' सारा ने उन सज्जन के चेहरे पर आये दीन भावों को पढ़ते हुए कहा -'' यस आई नो सर '' और ये सोचते हुए वहाँ से आगे बढ़ चली कि '' सच में तरुण तेजपाल ने सभी पुरुषों को शर्मिंदा कर डाला !''
शिखा कौशिक 'नूतन '
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