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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

''..फिर मौज करो !''

अति मेधावी युवक राम ने अपने लैपटॉप पर उच्च शिक्षा आयोग की वेबसाइट खोली  और डिग्री कॉलेज प्रवक्ता परीक्षा के हिंदी विषय के साक्षात्कार के परिणाम के लिंक पर क्लिक कर दिया .पी.डी.ऍफ़. फ़ाइल खुलते ही राम का दिल धक-धक करने लगा .उसकी आँखों के सामने चयनित अभ्यर्थियों की सूची थी .उसने गौर से एक-एक नाम पढ़ना शुरू किया .कुल चौबीस सफल अभ्यर्थियों में उसका नाम नहीं था .हां !उसके मित्र वैभव का नाम अवश्य था .उसके कानों में वैभव के पिता के कहे गए वचन गूंजने लगे -'' एक बार पैसा दे दो फिर ज़िंदगी भर मौज करो !'' राम के मन में आया -'' ..पर दे कहाँ से दो ? वैभव के पिता तो डिग्री कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष हैं .उनकी हर माह की तनख्वाह एक लाख के लगभग बैठती है पर मेरे पिता जी ..बेचारे एक परचून की दुकान चलाते  हैं और इसी की सीमित आय से उन्होंने मुझे उच्च शिक्षा दिलवाई .हर कक्षा में मैं वैभव की तुलना में ज्यादा अंक लाया और आज वो चयनित हो गया ..मैं रह गया ..क्या ये धोखा नहीं है ? क्या साक्षात्कार बोर्ड केवल अभिनय करने के लिए साक्षात्कार लेता है जबकि पैसा पहुंचाकर वैभव जैसे अभ्यर्थी अपना चयन पहले से ही पक्का कर लेते हैं .ये बीस-पच्चीस लाख देकर पद पाने वाले क्या पद ग्रहण करते ही अपना रुपया वसूलने के हिसाब-किताब में नहीं लग जाते होंगे ! फिर एक प्रश्न मुझे कचोटता है यदि  मेरे पिता जी के पास भी रिश्वत में देने लायक रूपया होता तो क्या मैं भी किसी और का हक़ मारकर पद पर आसीन हो जाता ? क्या मेरे आदर्श ,मेरी नैतिकता इसीलिए ज़िंदा है क्योंकि मैं रिश्वत देने लायक रूपये-पैसे वाला हूँ ही नहीं ?''

ये सोचते-सोचते राम ने अपने लैपटॉप की विंडो शट -डाउन कर दी और दीवार पर लगी घड़ी में समय देखा .रात के नौ बजने आ गए थे .राम के माँ-पिता जी एक देवी-जागरण में गए हुए थे .अतः राम ड्राइंग रूम में सोफे पर बैठकर उनके लौटने का इंतज़ार करने लगा .उसने सामने मेज पर रखी ''निराला' रचित ''राम की शक्ति पूजा '' उठाई और उसको पढ़ने लगा .राम को लगा जैसे ये उसके ही वर्तमान जीवन की उथल-पुथल पर सृजित रचना है।  ईर्ष्या.,संदेह ,पराजय के भय से आक्रांत स्वयं को धिक्कार लगाते  हुए मानों ये निराला कृत पंक्तियाँ उस पर ही लिखी गयी हैं -
    ''स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर-फिर संशय ,
    रह-रह उठता जग जीवन में रावण जय-भय ,
    कल लड़ने को हो रहा विकल वह बार-बार ,
  असमर्थ मानता मन उद्यत हो हार-हार .''

राम का ह्रदय साक्षात्कार के परिणाम को देखने के  पश्चात इतना अवसाद से भर गया था कि उसने निराला रचित इस महाकाव्यात्मक कविता की पंक्तियों को कई बार दोहराया .उसे भी वर्तमान में विभिन्न सरकारी आयोगों में व्याप्त भ्रष्टाचार रावण की भांति दुर्जेय  प्रतीत होने लगा .उसे लगा इसे भेद पाना असंभव कार्य है .उसका मन धिक्कारने लगा उस दिव्य-शक्ति को भी जो भ्रष्ट लोगों का साथ देती है और उसके जैसे योग्य लोगों को ऐसे मनहूस दिन देखने के लिए विवश कर देती है .सामने पुस्तक की पंक्तियाँ भी उसके मनोभावों को अभिव्यक्त करने वाली  थी -
  '' अन्याय जिधर है उधर शक्ति,
   कहते छल-छल हो गए नयन ,
   कुछ बूँद पुन: छलके दृग-जल
  रुक गया कंठ ...''

ये पढ़ते-पढ़ते राम की आँखें भी भर आई .उसने पलकें बंद की तो दो  अश्रु की बूँदें पुस्तक पर टपक गयी .उसने पुस्तक को वापस मेज पर रख दिया और लम्बी सांस भरकर दीवार पर टंगी अपने माता-पिता के विवाह की तस्वीर देखने लगा .राम सोफे पर से उठकर तस्वीर के पास पहुंचकर धीरे से बोला -'' आप दोनों चिंता न करें ! मैं इस निराशा और भ्रष्ट  तंत्र को भेदकर लक्ष्य-प्राप्ति करके दिखाऊंगा .मैं इनसे डरकर न रेल से कटूँगा न जल कर मरूँगा . न ही पिता जी आप पर दबाव बनाऊंगा कि कहीं से भी पैसों का इंतज़ाम कर रिश्वत दें ताकि मैं भी अपने से ज्यादा काबिल का हक़ छीनकर पद प्राप्ति में सफल हो जाऊं  .'' ये बोलते -बोलते राम के कानों में निराला की पंक्तियाँ गूंजने लगी -
 '' होगी जय , होगी जय हे पुरुषोत्तम नवीन ,
   कह महाशक्ति राम के वदन  में हुई लीन !''
 तभी डोर बैल बजी .राम समझ गया कि माँ व् पिता जी देवी जागरण से लौट आये हैं .एक नज़र दीवार -घडी पर डाली जो अब दस बजा रही थी .राम तेजी से डोर खोलने के लिए बढ़ लिया . अंदर प्रवेश करते ही राम का चेहरा देखकर माँ ने उससे प्रश्न कर डाला ''तू रोया था न बेटा   ?'' राम बनावटी  मुस्कान बनाता हुआ बोला -'' नहीं माँ !'' पर ये कहते -कहते ही वो बिलख कर रो पड़ा और रूंधें गले से ये कहता हुआ माँ के गले लग गया -'' मैं फेल हो गया माँ !'' राम के पिता जी उसके कंधें पर हाथ रखते हुए बोले -'' ..तो इस बार भी तू सफल नहीं हो पाया ...इसमें रोने की क्या बात है ? मिले थे देवी-जागरण में वैभव के पिता .बहुत प्रसन्न थे वैभव के चयनित होने पर .कह रहे थे पच्चीस लाख में सौदा पटा है .बेटा ! मेरे पास न तो इतने पैसे देने के लिए हैं और अगर होते भी तो मैं शिक्षा -विभाग को परचून की दूकान न बनने देता .बेटा ! विचलित मत होना .अपने सद आदर्शों को शक्तिमय  बनाओ  और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु सतत  प्रयासरत रहो .''  पिता जी के प्रेरणामयी वचनों  ने राम के व्यथित ह्रदय को बहुत राहत  पहुंचाई  .माँ ने राम के माथे  को चूमते हुए कहा  -'' तू क्यों निराश होता है लल्ला  ? ले  ये देवी-मैय्या का प्रसाद खा .पैसे देकर प्रोफ़ेसर बनने से अच्छा तो तू अपने पिता जी की दुकान पर उनके साथ बैठ जा .कम से कम मन को ये सुकून तो रहेगा कि तूने किसी और अपने से ज्यादा काबिल का बुरा कर अपना भला नहीं किया है ....सब भुगतना पड़ता है ..किसी और का हक़ मारा है इन पैसा देने वालों ने ....भगवान  सब देखता है .'' माँ ये कहकर नम आँखों को पोंछती हुई अपने कमरे में चली गयी और पिता जी भी राम को '' सो जाओ बेटा '' कहकर भारी मन से वहां से चले गए .
  पूरी रात राम करवटें बदलता रहा .''कैसे सफल हो पाउँगा ?'' ''क्या माँ-पिता जी मेहनतें बेकार चली जाएँगी ?'' ''क्या इस सृष्टि में कोई ऐसी शक्ति नहीं जो मेरे जैसे ईमानदार लोगों की मदद कर सके ?'' ये सब सोचते -सोचते उसका दिमाग थकने लगा और जब माँ ने झकझोर कर उसे जगाया तब सुबह के नौ बजने आये थे .राम अंगड़ाई लेता हुआ बोला -'' अरे ये तो बहुत देर हो गयी .पिता जी तो दूकान पर चले गए होंगे माँ ?'' माँ ने उसे चाय की प्याली पकड़ाते हुए कहा - '' हां ! और ये कहकर गए हैं कि अपनी असफलता पर उदास होने की बिलकुल आवश्यकता नहीं है .यदि  तुम्हारे मन में आत्महत्या जैसा कोई विचार पनप रहा है तो उसे तुरंत कुचल डालो क्योंकि हमारे लिए तुम्ही सब कुछ  हो .तुम कोई उच्चे पदाधिकारी बनते हो या फिर दूकान पर बैठते हो ...हमारे लिए दोनों परिस्थितियों  में तुम हमारे बेटे ही हो .चार लोगों में बैठकर ये कहने से कि हमारा बीटा ये बन गया ...वो बन गया ...से ज्यादा महत्व हमारे लिए तुम्हारा है .समझे ?'' माँ के ये पूछने पर राम विस्मित होता हुआ बोला -'' अरे आप लोग कैसी बातें कर रहे हैं ? मैं क्यों आत्महत्या की सोचने लगा ?'' राम के इस प्रश्न पर माँ ने पलंग के पास रखे स्टूल पर से अखबार को उठकर उसके आगे करते हुए कहा -'' ऐसे ही चिंतित नहीं हैं मैं और तुम्हारे पिता जी ..ये देखो इस लड़के ने क्या किया ?'' राम ने चाय ख़त्म करते हुए प्याली स्टूल पर राखी और माँ के हाथ से अखबार लेते हुए उसके पहले ही पृष्ठ पर प्रकाशित खबर को देखा . खबर की हेडिंग थी -'' साक्षात्कार में चयनित न होने पर युवक ने लगाई फांसी :दो माह पूर्व ही हुआ था विवाह '' . खबर पढ़ते ही राम भौचक्का रह गया .खबर के साथ उसका फांसी पर लटके हुए का फोटो भी था तथा उसकी रोती-बिलखती  नवविवाहिता का फोटो भी साथ में छपा था .खबर में उसके सुसाइड नोट का जिक्र भी था जिसमें उसने साक्षात्कार परिणाम में धांधली का आरोप लगाया था . विश्वविदयालय  टॉपर उस लड़के की फांसी पर लटके हुए की तस्वीर राम ने गौर से देखी तभी उसके कानों में गूंजे वैभव के पिता के वे वचन -'' एक बार पैसा दे दो फिर ज़िंदगी भर मौज करो !''

राम ने गुस्से में अखबार अख़बार को पलंग पर पटक  दिया और रोष में बोला -'' माँ देखा ....योग्य अभ्यर्थी फांसी पर लटक रहे हैं और पैसा देकर लगने वाले मौज कर रहे हैं ...भगवान सब देखता है तो माँ कहाँ है वो भगवान ? दो महीने में ही सुहागन से विधवा हुई इस युवती को क्या कहकर ढांढस बँधायेगा ये सिस्टम ...बहुत बुरा हुआ माँ ..बहुत बुरा हुआ ...पर आप चिंता न करो मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा !'' ये कहते हुए राम ने माँ की हथेली कसकर पकड़ ली .
      करीब छह माह पश्चात वैभव के पिता राम के पिता जी की दुकान पर आये और वैभव के विवाह का निमंत्रण कार्ड   दे गए .वैभव ने भी राम को फोन कर विवाह-समारोह में आने के लिए निमंत्रित किया .वैभव के विवाह-समारोह  में राम  शामिल हुआ .राम को वहां देखते  ही वैभव उससे मिलने आया और धीरे से उसके कान में बोला -'' हुआ नहीं ना अब तक कहीं नौकरी का जुगाड़ ?  अरे यार कब तक ऐसे ही आदर्शवाद के चक्कर में पड़ा रहेगा !तेरा सलेक्शन तो मैं आज ही करवा दूँ बस तू रुपयों का इंतज़ाम कर ले .'' राम उसकी बात पर मुस्कुराता हुआ बोला -''छोड़ ना ..आज ये सब बातें रहने दे ..मेरी शभकामनायें हैं तुझे व् तेरी जीवनसंगिनी को .'' वैभव राम को छेड़ता हुआ बोला '' हमें कब देगा ऐसा मौका ?'' राम थोड़ा शर्माता हुआ बोला -' तू भी ना ..'' वैभव हँसता हुआ बोला -'' पता है ! पिता जी ने बहुत ही मालदार लोग पकडे हैं... मेरी नौकरी लगवाने में जितना पैसा पिता जी को देना पड़ा था उतना नकद पैसा दहेज़ में आया है .नौकरी लगने के कोई एक फायदा थोड़े ही है !'' राम को वैभव की ये बातें बहुत ही हल्के स्तर की लग रही थी पर आज वो पलटकर कुछ नहीं कहना चाहता था क्योंकि आज वैभव के जीवन का बहुत ही खास दिन था .
               वैभव के विवाह -समारोह से लौटकर आये राम के चेहरे पर अपनी असफलताओं को लेकर निराशा के भाव थे .कानों में गूँज रहा था ,''अन्याय जिधर है उधर शक्ति .'' राम के मन में घमासान था .''आखिर ऐसे कैसे भ्रष्ट लोग हमें निर्देशित करने का साहस करते हैं जो हमारा हक़ छीनकर पदासीन हो जाते हैं .मन करता है आयोग के भवन को आग लगा दूँ जहाँ बैठकर भ्रष्ट लोग हमारे भविष्य से खिलवाड़ करते हैं ........वे न केवल हमारा हक़ छीनते हैं वे छीनते हैं माता-पिता की त्याग-तपस्या का सुफल ,सुहागिनों की मांग से सिन्दूर ,मारते हैं कितनी ही माताओं की कोख पर लात और छीनते हैं बूढ़े पिताओं का सहारा .....हाँ आग लगा देनी चाहिए ऐसे भवनों को और सरेआम चौराहे पर फांसी पर लटकाये जाएँ ऐसे भ्रष्ट पदाधिकारी .'' ऐसे अवसाद में डूबे राम को पिाताजी ने एक लड़की का फोटो दिखाते हुए कहा -'' क्या तुझे लड़की पसंद है ?'' फोटो देखकर राम उसे पहचानता हुआ बोला- ''पर ......ये तो वही लड़की है जिसके पति ने साक्षात्कार में चयनित न होने पर आत्महत्या कर ली थी .'' 'हाँ तो '' पिता जी ने कड़क होते हुए कहा .राम संभलता हुआ बोला '' तो .....तो कुछ नहीं ...आपको पसंद है ....माँ को पसंद है .....तो ठीक है .'' राम ये कहकर वहां से चलने लगा तो पिताजी नरम होते हुए बोले -''जिस दिन वो खबर पढ़ी थी और इसका फोटो देखा था उसी दिन निश्चय कर लिया था कि इस बच्ची को इस सदमे से टूटने न दूंगा ,गया था मैं इसके घर का पता करके इसके यहाँ , बता दिया था उन्हें कि मेरा लड़का यू.जी.सी.नेट है और पीएच .डी. भी कर चुका है पर डिग्री कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर लग पायेगा इसमें संदेह है क्योंकि मैं एक भी पैसा रिश्वत में नहीं दूंगा , मेरी परचून की दुकान है ....मेरे साथ वही संभालता है ...आप लोगों को स्वीकार हो अगर ये रिश्ता तो मुझे सूचित कर दीजियेगा .आज लड़की के ससुर व् पिता आये थे और ये तस्वीर दे गए थे कि तुम्हें दिखा लूँ , लड़की का नाम रीना है ,वह एम.एस.सी.पास है और गृहकार्यों में दक्ष है .'' राम को एकाएक अपने पिताजी पर गर्व हो आया जिनका ह्रदय इतना विशाल है जिसने अनजान लोगों के दुःख को न केवल महसूस किया बल्कि उसे दूर करने के लिए अपना कदम भी बढ़ा दिया .राम ने झुककर पिताजी के चरण छू लिए .
      राम व् रीना का विवाह बहुत साधारण खर्च में संपन्न हुआ .न कोई दिखावा और न कोई लेन-देन .वैभव मय पत्नी , पिताजी सम्मिलित हुआ था राम के विवाह में .वैभव के पिताजी ने एक कोने में ले जाकर राम से कहा था -''तुम्हारे पिता ने तुम्हारा जीवन चौपट कर डाला ,कम से कम  दहेज़ में इतना तो ले लेते कि तुम्हारी नौकरी का इंतज़ाम हो जाता ....एक तो विधवा ......खैर छोडो ....तुम भी शायद अपने पिता को ही सही मानते हो .''राम ने सहमति में सिर हिलाया था और बहाना बनाकर उनके पास से चला आया था .
                  सप्ताह ,महीने ,दो महीने ...ज़िंदगी राम की भी चल ही रही थी और वैभव की भी पर एक दिन जैसे सब रुक गया .राम को विश्वास न हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता है ? पर मोबाइल पर राम को ये सूचना वैभव के पिताजी ने दी थी इसलिए संशय की कोई बात शेष भी न थी .राम थोड़ी देर के लिए किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहा . रीना ने उसे आँगन में ऐसे खड़ा देखा तो उसके पास पहुंचकर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोली -'' क्या हुआ ? किसका फोन था ? '' राम हड़बड़ाता हुआ बोला - ''हैं .....क्या .....वो ...वैभव के पिताजी का फोन था ......वैभव और उसकी वाइफ की  सड़क दुर्घटना में मौत हो गयी है !!!''.....रीना ..रीना ऐसा कैसे हो सकता है ..दो ज़िंदगियाँ ऐसे पल भर में ..!'' ये कहते-कहते राम की आँखें भर आई .रीना उसे सांत्वना देते हुए बोली -'' आप दिल पर न लें ..वहां उनके घर जाइए ..उनका तो बुरा हाल होगा ..मैं माँ-बाबू जी को बताती हूँ !'' ये कहकर रीना अंदर चली गयी और राम के कदम वैभव के घर की ओर बढ़ चले .
   शमशान -घाट में जब  वैभव के पिता जी ने अपने एकलौते पुत्र व् पुत्रवधू की चिताओं को मुखाग्नि दी तब राम की आँखों के सामने न जाने क्यों फांसी पर लटके हुए रीना के पूर्व पति की अखबार में छपी तस्वीर घूम गयी और फिर दो महीने में विधवा हुई रीना की रोती-बिलखती की तस्वीर और फिर वैभव के पिता जी के वे वचन '' एक बार पैसा दे दो फिर ज़िंदगी भर मौज करो '' पर आज राम का ह्रदय भी इस वचन पर पलटवार करता हुआ बोला -'' और जब ज़िंदगी ही न रहे ..मौज करो चाहे तुम्हारे कारण कोई फांसी पर लटक जाये ,कोई रेल से कटकर मर जाये , कोई जल कर मर जाये या मेरी तरह नाक़ाबिलों को सफल होते देखकर भी दृढ़ ह्रदय होकर प्रयास  करता रहे ..अब क्या करोगे ..यमराज से सौदा पटा लो ..प्राण वापस ले आओ इन दोनों के ..नहीं ल सकते ना ...!!!'' ये सोचते सोचते राम की आँखें भर आई और उसका बदन वैभव और उसकी पत्नी की जलती चिता की आग से तपने लगा .उसके कानों में गूंजने लगी ''प्रसाद''की  ''कामायनी'' के ''चिंता '' सर्ग की ये पंक्तियाँ -
  '' अरे अमरता के चमकीले पुतलो ! तेरे वे जयनाद -
    काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि बन कर मानों दीन विषाद
    प्रकृति रही दुर्जेय , पराजित हम सब थे भूले मद में
    भोले थे , हां तिरते केवल सब विलासिता के नद में
     वे सब डूबे , डूबा उनका विभव , बन गया पारावार
   उमड़ रहा था देव सुखों पर दुःख जलधि का नाद -अपार !!''

  शिखा कौशिक 'नूतन '

4 टिप्‍पणियां:

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत प्रेरक और प्रभावी कहानी.कहानी का प्रवाह और चरित्र चित्रण बहुत सुन्दर है...

Unknown ने कहा…

सर जी मकर संक्राति के अवसर पर हमारी एक वेबसाइट लांच होने वाली है | कृपया उसमें लिंखे या आपके ब्लॉग को प्रदर्शित करने की अनुमति दें | मेल करें kishorvaibhav94@gmail.com या aalekh.editor@gmail.com

Unknown ने कहा…

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