''और फूल बिखर गया ''
उस कँटीले जंगल में वो अल्हड़ सी कली निर्भीक होकर मंद-मंद आती समीर के साथ झूल लेती और जब हंसती तो उसके चटकने की मधुर ध्वनि से हर काँटा ललचाई नज़रों से उसे देखने लगता .वो खुद को पत्तों में छिपा लेना चाहती पर कहाँ छिप पाती !! फिर वो कली खिलकर फूल बन गयी .काँटों ने उसे धमकाते हुए कहा -'' हम तुम्हारी रक्षा करेंगें वरना कोई तुमको तोड़ कर ले जायेगा ...ज्यादा मत मुस्कुराया करो ....न इठलाया करो .न चंचल पवन के झोंको से मित्रता रखो ...तुम कोमल सा एक फूल भर हो ...तुम पर भँवरे भी मंडराने आयेंगें .जो तुम्हारा रस चूसकर निर्लज्जता के साथ तुम्हारा उपहास उड़ाते हुए तुम्हें छोड़कर चले जायेंगें .फूल बनी वो कली उनकी बातें सुनकर सोच में पड़ गयी . ...घबरा गयी . उसका सौंदर्य घटने लगा .सर्वप्रथम उसकी सुरभि नष्ट हो गयी फिर पंखुड़ियों के रंग फीके पड़ने लगे .कली बने फूल की पंखुड़ियां स्वयं पर लगी पाबंदियों के दुःख के कारण बिखरने लगी . अपने अंतिम क्षणों में कली बने फूल ने देखा कि काँटों ने भी उससे मुंह फेर लिया था .
शिखा कौशिक 'नूतन'
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