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सोमवार, 16 सितंबर 2013

मुख्यमंत्री शर्मिंदा -लघु कथा

''...देखो बेटा ...ध्यान रखना अपना ....एक मुख्यमंत्री होने के नाते तुम जा तो रहे हो पर सांप्रदायिक आग में झुलसे हुए क्षेत्र  में तुम्हारे जाने से मैं बहुत चिंतित हूँ ....चाहो तो अपनी सुरक्षा में और कमांडों लगवा लो . बहुत तनाव है वहां उस इलाके में ...जनता गुस्से में हैं .सुरक्षा एजेंसी ने भी तुम्हारे लिए खतरा बताया है .दंगा-पीड़ितों में रोष है .......खैर ...सुरक्षा घेरा तोड़कर मत मिलना किसी से ...अब और क्या कहूं ..जब तक लौट कर सही-सलामत नहीं आते मेरे दिल को सुकून नहीं आएगा !'' ये कहते कहते मुख्यमंत्री जी के पिता जी उनके सिर पर हाथ फेरकर लम्बी उम्र का आशीर्वाद देकर वहां से चल दिए .मुख्यमंत्री जी ने उनके जाने के बाद आँखों में आई नमी पोंछते हुए एक लम्बी साँस ली और मन में सोचने लगे -'' पिताजी मुझे ..मेरी सुरक्षा को लेकर कितने चिंतित हैं !....पर दंगा प्रभावित इलाकों में कितने ही पिता अपने बेटों को खो चुके हैं उनके दिल को कैसे सुकून आ पायेगा भगवान जाने ! बिना किसी सुरक्षा के मौत के साये में रोजी-रोटी कमाने के लिए जिनके बेटे घर से खेतों पर काम हेतु जा रहे हैं उनके पिता कैसे ले पाते होंगें उनके लौटकर आने से पहले सुकून की साँस ?...ये सच ही है अगर मैं एक पिता की तरह राज्य की जनता को बेटा मानकर उनके जान-माल के प्रति चिंतित रहता तो इतनी मासूम  जिंदगियों को तबाह करने की ग्लानी  से अपने आप से ही शर्मिंदा न होता !'' ये सोचते-सोचते मुख्यमंत्री जी अपने कमरे से निकल कर साम्प्रदायिक दंगों से प्रभावित क्षेत्रों के दौरे हेतु तैयार कारों के काफिले की ओर बढ़ चले .
शिखा कौशिक 'नूतन'

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