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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

एक अच्छा सा फोटो -लघु कथा


अखबार के एडिटर महोदय का फोन आया .बोले -'' दीप्ति जी आपका आलेख सोमवार को प्रकाशित कर रहे हैं ..आप अपना अच्छा सा फोटो भेज दें .'' ये सुनते ही दीप्ति को झटका सा लगा .पहले भेजा तो था एक फोटो .अब जैसी वो है वैसा ही फोटो था .दीप्ति ने एडिटर महोदय को आश्वस्त करते हुए कि -'' वो भेजने का प्रयास करेगी '' बातचीत को सुखद विराम दे दिया पर इस बात ने उसके दिमाग में उथल -पुथल मचा दी .उसने सोचा -'' आखिर ये अच्छा सा फोटो क्यों जरूरी है ? क्या पाठक आलेख की सार्थकता के स्थान पर आलेख के साथ छपे लेखक के फोटो पर ज्यादा ध्यान देते हैं ? या ये बाध्यता केवल लेखिकाओं के साथ है कि उनकी रचना के साथ एक अच्छा सा फोटो भी हो ?क्या लेखिकाओं को अपनी लेखन-शैली को परिष्कृत करने ,अलंकृत करने ,शब्द ज्ञान को समृद्ध करने के स्थान पर अपना एक अच्छा सा फोटो अपनी रचना के साथ छपवाने से पाठकों में अधिक लोकप्रियता हासिल हो जायेगी ?'' तभी दीप्ति का ध्यान पास रखी साहित्यिक पत्रिका पर गया जिसमे महादेवी वर्मा जी का अत्यंत सीधा-सादा फोटो छपा हुआ था .दीप्ति उस फोटो को देखते हुए सोचने लगी -'' नहीं कभी नहीं ! एक लेखिका को केवल अपने लेखन पर ध्यान देना चाहिए और जिस पाठक की रुचि अच्छे फोटो में हो वे मॉडल्स के फोटो चाव से देख सकते हैं .लेखक व् लेखिका अपने लेखन से ही पहचाने जाये यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि है !''
शिखा कौशिक 'नूतन

6 टिप्‍पणियां:

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत सुंदर, समाज की ये असल तस्वीर है..


बताया नहीं कि फिर संपादक महोदय ने रचना
छापी या नहीं..

रविकर ने कहा…

बढ़िया है आदरेया -
आभार-

http://bal-kishor.blogspot.com/ ने कहा…

nice

http://bal-kishor.blogspot.com/ ने कहा…

achcha vichar.

बेनामी ने कहा…

@महेंद्र जी -वास्तव में एडिटर महोदय की कोई गलती नहीं है वे उसी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं जिसके लिए उन्हें पाठकों द्वारा विवश किया जाता है .सोच बदलना धीरे धीरे ही सम्भव है .आलेख प्रकाशित हुआ या नहीं ये आप स्वयं बताइये कि अगर आप एडिटर महोदय की जगह पर होते तो क्या करते ?

वाणी गीत ने कहा…

पहचान लेखन से ही होनी चाहिए।